वंदनीय वह देश, जहाँ के देशी निज-अभिमानी हों बांधवता में बँधे परस्पर, परता के अज्ञानी हों निंदनीय वह देश, जहाँ के देशी निज अज्ञानी हों सब प्रकार पर-तंत्र, पराई प्रभुता के अभिमानी हों।
हिंदी समय में श्रीधर पाठक की रचनाएँ